Wednesday, February 20, 2008

एक ग़ज़ल िजन्दगी

राज की बात करते थे जो अजनबी
गहरा उनसे बहुत दोस्ताना हुआ

प्यार की बात में वो किशश न रही
जब से िरश्ता हमारा पुराना हुआ

यकीन िदल को िदलाएं तो कैसे कहें
गम मोह्बत्त का सबसे सुहाना हुआ

दोस्तो की तलाश में िफरते रहे
जब से दुश्मन हमारा जमाना हुआ

तोड़ जाते जो िरश्तों को धागा समझ
उनका सागर क्यूं इतना दीवाना हुआ

प्रेम किव की कल्पना

कामनी साँवरी वह रंग रूप की अपसरा
मैं मन मोदक एक प्रेम किव की कल्पना
देंखू तब मन भावन जब,बात करूं तो तड़पन
जावन कैसे िप्रयेतम संग िमलने मे है अड़चन

तुम ही बताओ िप्रये सखा मेरे मन कैसे बहलाऊँ
दूर बहूत है सजनी मेरी कैसे िमलने जाऊं
या पार कभी वा पार कभी मैं भटकता रहता हूँ
आओगे कब बाहर स्वपन से मैं सोचता रहता हूँ

बस इस सूखी डाली पर हरयाली सी छा जाए
स्वपन इतना देख रहा हूँ तू स्वपन से आ जाए