Wednesday, February 20, 2008

प्रेम किव की कल्पना

कामनी साँवरी वह रंग रूप की अपसरा
मैं मन मोदक एक प्रेम किव की कल्पना
देंखू तब मन भावन जब,बात करूं तो तड़पन
जावन कैसे िप्रयेतम संग िमलने मे है अड़चन

तुम ही बताओ िप्रये सखा मेरे मन कैसे बहलाऊँ
दूर बहूत है सजनी मेरी कैसे िमलने जाऊं
या पार कभी वा पार कभी मैं भटकता रहता हूँ
आओगे कब बाहर स्वपन से मैं सोचता रहता हूँ

बस इस सूखी डाली पर हरयाली सी छा जाए
स्वपन इतना देख रहा हूँ तू स्वपन से आ जाए

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